वरिष्ठों का अन्याय
मूमल नेटवर्क, जयपुर। अच्छी और बेहतर कलाकृतियों की प्रदर्शनी के संबंध में तो हमेशा ही लिखा जाता है और उनकी विशेषताओं को कला के जानकार भले ही मुखर होकर बोलने से कतराते हैं, लेकिन मन ही मन सराहते भी हैं। जब कि इस मामले में उदयीमान युवा कलाकारों के साथ बहुत अन्याय हो रहा है। उनके काम को यही जानकार बिना वजह मुखर होकर सराहते हैं और इसे प्रोत्साहन कहते हैं। जबकि अनेक युवा कलाकारों का काम अन्य कलाकारों की अधकचरी नकल भर होता है। ऐसे युवा कलाकारों के साथ इसे सीनियर्स द्वारा किया जाने वाला अन्याय कहा जाना चाहिए।युवा कलाकार के काम |
प्री मेच्योर डिलीवरी सा
अपूर्ण साधना और अपरिपक्व कूंची के साथ प्री मेच्योर डिलीवरी सी आर्ट एग्जीबिशंस का सिलसिला पिछले कुछ अर्से से एकाएक बढऩे लगा है। पिछले दिनों जयपुर के जवाहर कला केंद्र की एक कला दीर्घा में एक और ऐसी प्रदर्शनी देखने को मिली जिसे देख मन विषाद से भर गया। इस युवा कलाकार की पहली प्रदर्शनी थी और इसमें कुल 22 काम प्रदर्शित किए गए थे। पूरी प्रदर्शनी पर किसी व्यवसायिक आयोजन की छाया थी। प्रदर्शनी की प्रचार सामग्री भी उसी के अनुरूप थी। कला दीर्घा को गुलाब और गैंदे के फूलों से सजाने के नाम पर एक कोने से दूसरे कोने तक फूलों से पाट दिया गया था। एक बड़ी सी गोल मेल पर बिसलरी की क्वाटर बोट्लस के साथ चॉकलेट व टाफी के साथ तरह-तरह के कुकीज सजाए गए थे। इन सब के साथ सजे बैठे युवा कलाकार के साथ मौजूद थे उसके अभिभावक। ...और इन सब के बीच बेतरतीब ठंग से लगाए गए युवा कलाकार के वह सभी काम जो उसने अपनी शिक्षा अवधि में अभ्यास के दौरान बनाए होंगे।भौंडा प्रदर्शन व तामझाम
पता नहीं इस प्रदर्शनी के प्रस्तुति पक्ष पर किस जानकार सलाहकार की सेवाएं ली गई, लेकिन यह स्पस्ट दिख रहा था कि सलाहकार जी को दिखावे के तामझाम की जानकारी तो है, लेकिन कलाकृतियों की प्रस्तुति के बारे में वे कुछ नहीं जानते वरना कलाकृतियों के लिए चुने गए स्थान और उनकों दर्शक की आई लेवल पर रखने का जरूरी पक्ष नजरअंदाज नहीं होता। खैर! कलाकृति दर्शनीय हो तो कला प्रेमी उसे कुछ ऊंचा-नीचा होकर भी देख सकता है और वह किसी भी स्थान पर हो उसे देखता ही है। यहां हम चित्रकारी की बात करें तो अध्ययन काल के काम तो अपरिपक्व ही होंगे यह बात समझ में आती है, लेकिन यह समझ में नहीं आता कि उनका अदर्शनीय होने के बावजूद उनका सार्वजनिक प्रदर्शन प्रदर्शन क्यों? केवल कला दीर्घा की दीवार के खाली लग रहे स्थान को भरने भर के लिए कुछ भी लगा देना क्या कला प्रशंसकों का अपमान नहीं?
नकल और केवल नकल
कुछ बिरला प्रतिभाओं को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश कला विद्यार्थियों के अध्ययन काल में बनाए चित्र किसी न किसी स्थापित या महान कलाकार की कृतियों से ही प्रभावित होते हैं। जाहिर है, इस युवा कलाकार के काम में भी वही सब था। अब अन्य चित्रों की बात करें तो वह भी नकल, बल्कि कहा जा सकता है लगभग हूबहू नकल। ...और नकल भी किसकी किसी बड़े, महान या स्थापित कलाकार के काम की नहीं, बल्कि पूरी तरह कॉमर्शियल उन पोस्टर कलाकारों की जिनके काम कम्प्यूटर्स के वॉलपेपर के लिए उपयोग किए जाते हैं। यह वाल पेपर्स भी वे जो गूगल इमेज पर 'कलरफुल पेंटिंग्स' टाइप करते ही धड़ाधड़ मॉनीटर पर प्रकट हो जाते हैं।
गूगल इमेज पर 'कलरफुल पेंटिंग्स' -1 |
गूगल इमेज पर 'कलरफुल पेंटिंग्स' -2 |
गूगल इमेज पर 'कलरफुल पेंटिंग्स' -3 |
इस पर तुर्रा यह कि इस काम की कलाकार के आसपास मंडराने वाले सभी लोग तारीफ करते करते नहीं थकते। चलो अभिभावक के लिए तो उनकी संतान ही सबसे होनहार हो सकती है, परिजन और अभिभावकों के सोशल सर्कल में शामिल लोग भी किसी न किसी मजबूरी या कला क्षेत्र की कम जानकारी के चलते ऐसा करते हैं, दैनिक समाचार पत्रों के पुलआउट और लोकल टीवी चैनल्स के व्यस्त रिपोटर्स को भी दोष नहीं दिया जाना चाहिए, क्यों की इनमें से अधिकांश का विषय कला नहीं होता और युवा कलाकार का उत्थान या विकास इनका विषय या लक्ष्य भी नहीं होता। इन्हें तो बस हर खबर में रंग जमाना होता है, माना कि इनकी भी कई मजबूरियां हैं, लेकिन उन कला जानकारों का क्या जो सब जानते हुए भी युवा कलाकार की मिथ्या सराहना करते हैं। एक और वे कहते हैं युवाओं को कड़ी साधना और अथक अभ्यास करना चाहिए। मौलिकता पर भी यही जानकार कला गोष्ठियों के व्याख्यान में सार्वजनिक रूप से ज्ञान वितरित करते हैं, जबकि युवा कलाकार और उसके परिजनों के मुंह पर उसके अधकचरे काम की सराहना करते हैं और इसे प्रोत्साहन देने और हतोत्साहित नहीं करने की मंशा के लबादे से ढक देते हैं।
इतने क्रूर और कठोर क्यों ?
मिथ्या सराहना करने वाले कला के सहृदय जानकार और वरिष्ठ कलाकार उदयीमान युवा कलाकारों के प्रति इतने कू्रर और कठोर क्यों हो जाते हैं? किसी युवा कलाकार की भू्रण हत्या होते देखकर भी उन्हें रहम क्यों नहीं आता? कोई तो हो जो नवांकुरों की जड़ों में तेजाब डालने से साफ इंकार करे, कोई तो हो जो इन नई पौध पर मट्ढा डालने का विरोध करे....। -गायत्री
मूमल मीमांसा
अधबुने सपने और कला मृत्यु के पथ
यह सही है कि जयपुर में कला गतिविधियां बढ़ी हैं। जवाहर कला केन्द्र की दीर्घाएं कला प्रदर्शन से आबाद रहने लगी हैं। अलग-अलग जगहों से आए आर्टिस्ट्स के साथ शहर के कलाकारों के फन से भी रूबरू होने के अवसर बढ़े हैं। कला के विभिन्न रूपाकारों के बीच घूमते हुए कई बार कुछ ऐसे प्रदर्शन भी देखने को मिलते हैं, जिनके माने ही समझ में नहीं आते।
साधना रहित खींंची हुई रेखाएं या फिर किसी स्थापित कलाकार की कृतियों की नकल या फिर दोनों का संगम। यह सब देखकर कला के प्रति आसक्त मन उदास हो जाता है, रोष से भर जाता है। ऊपर से कोढ़ पर खाज का काम करता है, अपरिपक्व पत्रकारों द्वारा ऐसी कला पर शब्दों के लम्बे-चौड़े मकड़-जाल से किया गया महिमा मंडन। किसी अखबार में छपना, वाहवाही हासिल करना और अपनी अपूर्णता को पूर्ण मानकर गर्व करना। ऐसी वृति को पालने वाले कलाकारों की संख्या में बीते दिनों अच्छी-खासी वृद्धि हुई है।
शौकिया कक्षाओं में कुछ समय तक अधकचरा ज्ञान प्राप्त करने वाले लोग या फिर कला में अध्ययनरत छात्र समय से पूर्व ही अपनी कला का प्रर्दशन करने का लोभ नहीं संवार पाते। रातो रात प्रसिद्धि का आकाश छूने का सपना पाल जरूरी कला साधना से पहले ही दीर्घाओं की दीवारों पर अपने अधबुने सपने को टांग कला मृत्यु के पथ पर चल देते हैं। अफसोस की झूठी वाहवाही के चलते समय रहते उन्हें वास्तविक्ता का भान भी नहीं हो पाता है।
पहले अपरिपक्व प्रदर्शन और फिर हवाई प्रकाशन, समय से पहले की परवाज चाहने वाले उनके सपनों को हवा देने लगते हैं। और उनके आगे बढऩे की अपार क्षमताओं की संभावनाएं इस लालसा के आगे टूट जाती हैं, क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। झूठी प्रशंसा से खिंची भ्रम की दीवार उस पार के सच को देखने नहीं देती। कुछ समय बाद जब भ्रम की दीवार टूटती है, तब तक हौसले पस्त हो चुके होते हैं। दिलोदिमाग कुण्ठा से भर चुका होता है। और सामने होती है, गहरी टूटन लिए अधूरी साधना।
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