बुधवार, 24 जून 2009

कला बाज़ार पर भी मंदी की मार


भूमंडलीय मंदी की मार कला बाज़ार पर भी पड़ी है और इसकी मिसाल बना, अमेरिका के मैनहटन का मशहूर कला मेला जहां सस्ती कीमतों में पेंटिंग्स खऱीदी गईं। बाज़ार में मांग को कम देखते हुए कलाकार और मेला आयोजक बस धुंधली सी उम्मीद करते रहे कि देखें कितनी सामग्री कितने दामों तक बिकती है, लेकिन कुल मिलाकर उन्हें मायूसी हाथ लगी।

आठ साल से जारी ये कला मेला नए खऱीददारों को आकर्षित करने के लिए शुरू हुआ था। ऐसे खऱीददार जो कला के कद्रदान हैं लेकिन जिनकी जेबें भारी भरकम नहीं। पेंटिंग्स की कीमतों की रेंज 75 डॉलर से लेकर दस हज़ार डॉलर तक रखी गयी थीं। ज़्यादातर काम पांच हज़ार डॉलर या इससे कम कीमत वाला था। ऐसी आकर्षक कीमतों वाली पेंटिंग मिल जाए तो क्या कहने। लेकिन मंदी के दौर में ग्राहकों को जुटाना इस मेले के लिए इस बार टेढ़ी खीर साबित हुआ। मेले के आयोजकों का कहना है कि भीड़ तो जुटी लेकिन ज़्यादातर लोग ऐसे थे जो देखते निहारते और सराहना करते और फिर आगे बढ़ जाते। पिछले साल इस कला मेले में 70 आर्ट गैलरियों ने भाग लिया था। इस बार 64 कला दीर्घाएं आयी।

कलाकारों का भी कहना है कि सस्ती आर्ट की मांग का संघर्ष अभी जारी है। आर्थिक मंदी ने कला बाज़ार को भी हिला दिया है। कला समाग्री की मशहूर नीलामीकार कंपनी सदेबी ने पिछले माह ही नीलामी की बिक्री में 71 फ़ीसदी गिरावट दर्ज की थी।अब एक सवाल ये भी है कि सस्ते दामों की ये पेंटिंग्स स्तरीय भी हैं या साधारण दर्जे का काम यहां रखा गया था। तो ये बता दें कि ऐसा बिल्कुल नहीं। मेला भले ही सस्ती कला सामग्रियों का हो, लेकिन स्तर और गुणवत्ता में वो आला ही माना जाता रहा है और ये कोई नहीं जानता कि किस पेंटर की कौन सी कृति कब कला बाज़ार में हिट हो जाए। फिर वो पेंटर जाना माना हो या कोई अंजाना शख्स।

कला बाज़ार आमतौर पर उस बाज़ार फलसफे के साथ दुनिया भर में छाया था कि खरीददारों के लिए कोई आर्ट पीस महज़ सौंदर्यबोध या कला तृप्ति का ज़रिया नहीं थी, वो एक परिसंपत्ति भी थी। वैसे ही जैसे मकान, वाहन या ज़मीन या एक एस्टेट, जो घर के ड्राइंगरूम की दीवार पर सजा भी है और जिसके दाम अबूझ ढंग से बढ़ते रहते हैं। वो एक मुनाफे का सौदा माना जाता रहा है। लेकिन न्यूयार्क कला मेले में आए कलाकारों को लगता है कि इस मेले में आने वाले ग्राहकों की अब वैसी मनस्थिति या वैसी कार्ययोजना या रणनीति नहीं दिखी, उन्हें तो बस अपनी जेब और अपने भविष्य के खर्चे ही दिखते रहे।मेले में आए कुछ ग्राहकों का तो साफ़ कहना था कि वे तभी कोई चीज़ खऱीदने की सोचेंगे अगर उसमें वित्तीय सुरक्षा की गारंटी हो।

यानी अब कला के खऱीददार भी फूंक फूंक कर गैलरियों और वहां टंगी तस्वीरों को निहार रहे हैं। दुनिया भर से सस्ती कला सामग्रियां लेकर आए वहां के आर्ट गैलरी वाले इस मेले में भीड़ भाड़ और भव्यता के बीच ज़्यादातर कभी अपने सामान, कभी अपने स्टॉल से गुजऱते दर्शकों को निहारते रहे। शायद कोई ग्राहक हो और वो रुक जाए। लेकिन क्या करें चाल तो सिर्फ बाज़ार की धीमी हुई है।

मंगलवार, 2 जून 2009

रंग रसिया- एक चित्रकार की कहानी

'रंग रसिया' पुरातन भारतीय उपन्यास 'राजा रवि वर्मा' पर आधारित है जिसकी रचना प्रसिद्ध उपन्यासकार व लेखक रणजीत देसाई ने की है। यह उपन्यास 19वीं सदी के भारतीय मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा की जिंदगी के इर्द-गिर्द घूमती है। यह धार्मिक असहनशीलता एवं कट्टरवादियों द्वारा भावनाओं की स्वतंत्रता पर लगी पाबंदी से रूबरू कराती है जो वर्तमान समाज के लिए भी अहम सवाल है। हिंदू देवताओं की नग् तस्वीर चित्रित करने के कारण उन पर अश्लीलता, अनैतिकता एवं जन साधारण की धार्मिक भावनाओं का हनन करने का गंदा व अभद्र आरोप लगाने के साथ उन्हें गिरफ्तार भी किया गया। एक कलाकार व उसकी प्रेरणा सुगंधा की प्रेम कहानी शुरू होने के साथ ही कोर्ट की प्रक्रियाएं भी शुरू हो जाती है। दोनों मिलकर उत्कृष्ट चित्रों को निर्मित करते हैं या यूं कहें कि सुगंधा की खूबसूरती से प्रेरित होकर ही उन्हें पारंपरिक साहित्य व भारतीय पुराणों पर आधारित चित्रों को बनाने की प्रेरणा मिलती है और उनकी यहीं प्रेरणा अंतत: प्यार बनती है। यह बेहद खूबसूरती व आम फिल्मों की कहानियों से अलग हटकर बनी ऐसी फिल्म हैं जो मशहूर भारतीय कलाकार व समाज सुधारक राजा रवि वर्मा की जिंदगी को चित्रित करती है। राजा रवि वर्मा ने हमेशा यहीं चाहा कि उनकी कला आम आदमी तक पहुंचे। अपनी कल्पना व सृजनात्मकता से वे हिंदू देवी-देवताओं को महलों व मंदिरों की चार दीवारी से बाहर लाएं इस फिल्म में दर्शकों को शेक्सपियर की प्रेम कहानी की झलक भी मिलेगी। यह एक कलाकार व उसकी प्रेरणा के बीच की कहानी, जज्बातों व धोखे की मूल गाथा है। केतन मेहता की यह सराहनीय पहल न सिर्फ भारतीय इतिहास के तमाम पहलुओं को ही उजागर करती है बल्कि समकालीन समाज में एक कलाकार की आजादी, नैतिक नीतियों, सेंसरशिप व धर्म के प्रति असहनशीलता पर भी सवाल उठाती है।