राजस्थान के प्रसिद्ध चित्रकार रामगोपाल विजयवर्गीय ने शब्दचित्रों के अपने संग्रह 'चित्रगीतिका' में बणी-ठणी का जो दिग्दर्शन किया वह यहां प्रस्तुत है।
लहराता मुख पर
शोभा समुद्र
अंगो पर छिटकी
चारू चांदनी रातें हैं
प्रति अवयव पर
अंगड़ाई रत लावण्य ललित
महाभाव से परिचित
बणी-ठणी दर्शन
जिनके खंजन नयन विनत
आलस वश बिखरे
कंच कलाप युग भृकुटि चाप
खंजन पक्षी सम चक्षु
चारु चंद्रिका बिखराती
वदन चंद्र पर
पलक रसीली
चितवन चकित
धरे नासा मुक्ताफल से
सुधा बिंदु सम
अधर पीक की लीक रचे
शोभा शिरीस सम्पुट का
अग्र अधर के मुक्ता
ओस बिंदु सम अवलम्बित
ग्रीवा जैसे
कल्प वृक्ष की शाखा सुन्दर
उठी हुई जो चंद्र वदन तक
हार हीरकों के
दोलित उन्नत उरोज युग पा
जैसे दो सरिता बहती हों
हिमगिरी के ऊपर से
अलकावलि छुटी
कपोलों पर
जैसे कि धूम्रलेखा
छल्ले बन बन कर
चली जा रही
लट केशों की करती क्रीड़ा
बल खाए बाहु मूल पर
दो भुजंग
कानों में शोभायमान
कुंडल कंधों तक आलंबित
कटिभाग नितंबों की गुरुता
काले संबल कदली दंडों से
उरु युग पर आश्रित जैसे
दो कमल कोस के चरण
राजमहल बन गया
किशनगढ़ का वृंदावन
फूल महल के
स्वच्छ सरोवर
की लहरों ने गाए
गीत प्रेम के अविरल।
लहराता मुख पर
शोभा समुद्र
अंगो पर छिटकी
चारू चांदनी रातें हैं
प्रति अवयव पर
अंगड़ाई रत लावण्य ललित
महाभाव से परिचित
बणी-ठणी दर्शन
जिनके खंजन नयन विनत
आलस वश बिखरे
कंच कलाप युग भृकुटि चाप
खंजन पक्षी सम चक्षु
चारु चंद्रिका बिखराती
वदन चंद्र पर
पलक रसीली
चितवन चकित
धरे नासा मुक्ताफल से
सुधा बिंदु सम
अधर पीक की लीक रचे
शोभा शिरीस सम्पुट का
अग्र अधर के मुक्ता
ओस बिंदु सम अवलम्बित
ग्रीवा जैसे
कल्प वृक्ष की शाखा सुन्दर
उठी हुई जो चंद्र वदन तक
हार हीरकों के
दोलित उन्नत उरोज युग पा
जैसे दो सरिता बहती हों
हिमगिरी के ऊपर से
अलकावलि छुटी
कपोलों पर
जैसे कि धूम्रलेखा
छल्ले बन बन कर
चली जा रही
लट केशों की करती क्रीड़ा
बल खाए बाहु मूल पर
दो भुजंग
कानों में शोभायमान
कुंडल कंधों तक आलंबित
कटिभाग नितंबों की गुरुता
काले संबल कदली दंडों से
उरु युग पर आश्रित जैसे
दो कमल कोस के चरण
राजमहल बन गया
किशनगढ़ का वृंदावन
फूल महल के
स्वच्छ सरोवर
की लहरों ने गाए
गीत प्रेम के अविरल।
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