'बणी-ठणी' के वस्त्राभूषण ठेठ सामंती राजस्थानी हैं। ललाट के ऊपर मांग के आरंभ में गोल स्वर्णिम शिरफूल , उससे निकली मोती लडिय़ां, मोती लडिय़ों को जोड़ता बड़ा सा घंटी नुमा झुमका, खनखनाते मोटे चौड़े से कंगन, कलाई से कुहनी तक चढ़ती सिंदूरी चूडिय़ां, गले के नीचे वक्ष क ऊध्र्व को झुलाता कई लडिय़ों वाला कंठहार, एक बड़ी सी गोल नथनी जिस पर जवाहरात गुंथे हैं।
इसी तरह पहनावे में लाल रंग की चोली, गले से लिपटी सफेद चूनर और उसके ऊपर सलमे-सितारे से टंकी तथा कारों की पत्तों पर गोटो से सधी पिछौरी या पिछवाई नजर आ रही है। 'बणी-ठणी' के अंग-प्रत्यंग गोरे गेहूं के रंग से हैं। हथेली केसर या मेहंदी से अनुरंजित है। आंखों में गहरा काला काजल है। उतनी ही काली लटें है जो कान के नीचे कंधों तक पसरी हैं। घनी भौवें तने धनुष सी और पलकें बड़े कमल की पंखुरी सी है। एकचश्म शैली में चित्रित आंख किसी चंचल मछली सी है। होंठ किसी मीन मुख से रसाकुल और रक्तवर्ण हैं।
'बणी-ठणी' ने अंगूठे और प्रथमा अंगुली की चुटकी से सलमेंदार बंधनी की झीनी पिछौरी थाम रखी है। एक ओर वह जहां घंूघट के पट खोल रही है वहीं पीछे के परिदृश्य से अपने सौन्दर्य को छिपा भी रही है। लिबास की कई तहों में ढका सुनहरी गोट का मुद्रा श्रीचक्र भी मानों सब कुछ कह है। मानों यही वह आद्या शक्तिमयी राधा और त्रिपुरसुंदरी है। कम से कम राजा सावंत सिंह तो यही मानते थे। यही तो निरूपण का व्यूह है। तभी तो नागरी राधा के दास हो कर रह गए...नागरी दास।
ऐसा लगता है कि 'बणी-ठणी' की स्थली फूलमहल में कहीं है। उसकी वेशभूषा राजसी है। वह आभूषण और रत्नों से सज्जित है। उसकी सघन केशराशि खुली है। पलकों पर तो हैं, लेकिन उसके नीचे नेत्रों में बरौनियां नहीं है। बड़ी-बड़ी घुंघराली जुल्फें और झूलती नथनी, हाथों की अंजनी सी मुद्रा आदि सब मिलकर वातावरण में एक लय सी गुंजित करते हैं।
इसी तरह पहनावे में लाल रंग की चोली, गले से लिपटी सफेद चूनर और उसके ऊपर सलमे-सितारे से टंकी तथा कारों की पत्तों पर गोटो से सधी पिछौरी या पिछवाई नजर आ रही है। 'बणी-ठणी' के अंग-प्रत्यंग गोरे गेहूं के रंग से हैं। हथेली केसर या मेहंदी से अनुरंजित है। आंखों में गहरा काला काजल है। उतनी ही काली लटें है जो कान के नीचे कंधों तक पसरी हैं। घनी भौवें तने धनुष सी और पलकें बड़े कमल की पंखुरी सी है। एकचश्म शैली में चित्रित आंख किसी चंचल मछली सी है। होंठ किसी मीन मुख से रसाकुल और रक्तवर्ण हैं।
'बणी-ठणी' ने अंगूठे और प्रथमा अंगुली की चुटकी से सलमेंदार बंधनी की झीनी पिछौरी थाम रखी है। एक ओर वह जहां घंूघट के पट खोल रही है वहीं पीछे के परिदृश्य से अपने सौन्दर्य को छिपा भी रही है। लिबास की कई तहों में ढका सुनहरी गोट का मुद्रा श्रीचक्र भी मानों सब कुछ कह है। मानों यही वह आद्या शक्तिमयी राधा और त्रिपुरसुंदरी है। कम से कम राजा सावंत सिंह तो यही मानते थे। यही तो निरूपण का व्यूह है। तभी तो नागरी राधा के दास हो कर रह गए...नागरी दास।
ऐसा लगता है कि 'बणी-ठणी' की स्थली फूलमहल में कहीं है। उसकी वेशभूषा राजसी है। वह आभूषण और रत्नों से सज्जित है। उसकी सघन केशराशि खुली है। पलकों पर तो हैं, लेकिन उसके नीचे नेत्रों में बरौनियां नहीं है। बड़ी-बड़ी घुंघराली जुल्फें और झूलती नथनी, हाथों की अंजनी सी मुद्रा आदि सब मिलकर वातावरण में एक लय सी गुंजित करते हैं।
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