श्रीराधा रूप में चित्रित 'बणी-ठणी' के हाथ में कमल देकर लक्ष्मी की तरह
बताया है वहीं नारी के कमला और पद्मिनी रूप को भी दर्शाया है। श्रीराधा के
रूप में इसे आद्याशक्ति भी माना है। पाठ्यक्रम की पुस्तकों को आधार माने
तो जहां चित्रकारी के तहत 'बणी-ठणी' की मदकारी और खुलाई को शास्त्र विधान
का 'अतिक्रमणÓ माना जा सकता है वहीं नारी रूपों के निरूपण के शिल्प में इसे
'लांछन' कहा जा सकता है। लेकिन विशुद्ध शैली और शास्त्र विधान से परे यह
'बणी-ठणी' अपने किसी भी आम दर्शक को किसी चुंबक की तरह न केवल खींचती है
बल्कि देर तक बांधे रखने में सफल होती है। कलाप्रेमी राजा या चित्रकार की
तो बात ही अलग है।
स मय-समय उत्पन्न परिस्थितियों से जो साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि 'बणी-ठणी' का प्रोट्रेट संभवत: चित्रकार निहाल चंद और राजा सावंत सिंह की साझा कृति है। महाराज सावंत सिंह की मूल कृति से लेकर राज चित्रकार निहाल चंद की अंतिम 'बणी-ठणी' तैयार होने का यह सिलसिला संवत 1755 से 1757 तक चला। इस बीच अन्य चित्र भी बनते रहे। मारवाड़ शैली की उन्नत कलम का यह स्वर्णकाल कहा जा सकता है।नागर रमणी बणी-ठणी जी के इस विलक्षण पोटे्रट का विवेचन करते हुए यहां हम देखेगे कि इसमें आरूढ़ साक्षात सौन्दर्य गर्विता इस यौवना के यह भाव किस स्तर पर महसूस किए गए? 'बणी-ठणी' ऐसी विलक्षण क्यों और कैसे हुई? इसके सौन्दर्यपरक और शैली मार्गिय शास्त्रीय कारण क्या रहे होगें?
1. मुनि वात्स्यायन ने चित्रशिल्प के षडंगों में संतुलित समायोजन किया था। बाद में उसे चित्रकार अवनीद्रनाथ ठाकुर और पृथ्वी कुमार अग्रवाल ने अपनी पुस्तकों में और सरल किया। अब चित्रकला के विद्यार्थियों को यहां रूप भेद, प्रमाण, भाव, सादृश्य, लावण्य योजना और वर्णिका भंग के संबंध में विवरण बताने का कोई औचित्य नहीं है। यह सब पाठ्यक्रम में उपलब्ध हैं। 'बणी-ठणी' में वह समाहित हैं दूसरी ओर ग्यारहवीं सदी में भोज ने चित्रकर्म या विन्यास के अष्ठांग बताए हैं। यहां चार अंगो को महत्ता दी गई है, शेष की चर्चा पनुरावृति ही होगी।
मध्यकाल में मुगल बादशाह अकबर के जमाने में राजस्थानी और ईरानी हिरात कलम का मेल कराके बाग-बगीचों और व्यक्तिचित्रों को प्रमुखता दी गई। उस काल के प्र्रोट्रेट्स का भी 'बणी-ठणी' पर असर नजर आया। 'बणी-ठणी' के चित्रकार स्वयं कश्मीरी थे। वहां ऐसे आवक्ष छविचित्रों को शबीह कहा जाता था। ऐसे में 'बणी-ठणी' पर इन शैलियों का पूरा प्रभाव पड़ा और एकचश्म टिपाई, के साथ गदकारी और खुलाई की खुली छाया 'बणी-ठणी' पर छाई रही। इसमें जहां मुगलकालीन बेगमों सा सुबुकपन और नाजुकपन है वहीं झीना ओढऩा कश्मीरी कहानी कहता है। किशनगढ़ के राजमहलों की पृष्ठभूमि में उद्यानों और जलाशयों में नौका विहार के अनेक चित्र हैं, होली, दीवाली और विभिन्न केलि क्रिड़ाओं के अनेकों चित्र हैं जिनमें राजा सावंत सिंह और उनकी प्रिय माडल चित्रित हैं। बहुदा यह प्रस्तुति राधा-माधव के नाम से है, लेकिन यहां हम अपनी 'बणी-ठणी' से ही सरोकार रखेगें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें