हां... बहुत कुछ किसी राज के महाराज और उसकी रहस्यमयी प्रेम कहानी जैसी ही है 'बणी-ठणी' की अंत:कथा। बस, राधा और कृष्ण के विशुद्ध प्रेम के पवित्र संबंधों से लिपटी पवित्र कथा। अब यह सच्ची गाथा है या फिर रजवाड़ों और रियासतों में पनपती रही केलि-क्रीड़ा और उन्मुक्त भोग की आम कहानी जैसी... जो भी हो... रियासतों के चारण भाटों ने अपने राजा और उसकी कलावंत रमणी दासी को महिमा मंडित कर अपना पुश्तैनी कर्तव्य पूरा किया।
इधर हमने परिस्थिति जन्य साक्ष्यों के आधार पर
'बणी-ठणी' के सभी पक्ष आपके समक्ष रखकर अपना
पत्रकार धर्म निभाने का प्रयास किया।
-राहुल सेन-
राजस्थान की अरावली पर्वत श्रंखला के बीच एक रियासत थी किशनगढ़। अठारहवीं शती के मध्य में अर्थात लगभग उत्तर मध्य काल में यह रियासत काफी सम्पन्न और बड़ी रियासतों में शुमार थी। राजा सावंत सिंह का राज था। (कालांतर में इन राजा का नाम नागरी दास भी हुआ, ऐसा क्यों हुआ यह आगे स्पष्ट होगा) सौंदर्य और कला की कद्र करने वाले राजा सावंत सिंह कृष्ण भक्त थे। अपने भगवान के चलाए रास्ते पर चलते सावंत सिंह ने अनेक कलाओं और कलाकारों को अपने राज में आश्रय दिया। वे स्वयं भी चित्रकला और कविता करते थे।रियासत की रानियां भी निम्बार्क मत की अनुयायी थीं। इसमें कृष्ण की मोहन और राधा की मादन भाव से उपासना होती थी। ऐसे में बाल कन्हैया के किलोल, गौरस, गोपी, नौका विहार, चीर हरण वाले मन मोहन का गहरा प्रभाव था। होली-दीवाली तक सभी तीज त्यौहार इससे रचे-बसे रहते। दरअसल 'माया को भ्रम और जगत को मिथ्या' कहाने वाली बातों से अलग राज्य में 'माया को यथार्थ और जगत को सत्य' मानकर राधा-माधव के अनुराग और अनुग्रह को अपनाया गया।
वह सामान्य नहीं थी
ऐसे में कला और सौन्दर्य प्रिय राजा का अनुग्रह और अनुराग रानी बाकांवती के साथ-साथ उनकी एक दासी के प्रति भी खूब हुआ। जाहिर है राजा की नजरों में प्रशंसा पाने वाली यह दासी सामान्य नहीं थी। वह मूलत: गायिका थी। इसी के साथ कवयित्री व कलावंत भी थी। कृष्ण सरीखे राजा की अपनी ओर आसक्ति को जानने के बाद दासी ने स्वयं को मीरा की तरह समर्पित करते हुए कृष्ण की राधा से तारतम्य कर लिया। रियासत में और बाहर भी राजा और दासी के इस अनुग्रह और अनुराग का यह आलम रहा कि दासी को राजा ने कई संबोधन और सम्मान दिए तो राजा को प्रजा ने कई उपाधियों से नवाजा।
राजा सावंत सिंह को चितवन चितेरे व कवि के साथ सनेही, अनुरागी, मतवाले आराधक जैसे संबोधनों से कई जगह उल्लेखित किया गया है। राजा को कृष्ण मानकर राधा से तारतम्य स्थापित कर चुकी दासी स्वयं को नटवर नागर की मानने लगी तो राजा को एक संबोधन मिला नागरी दास।
उसे कई नाम मिले
उधर दासी के जीवन में दो ही आराध्य रहे एक सवेश्वर कृष्ण और दूसरे महाराज सावंत सिंह। दासी स्वयं 'रसिक बिहारी' के नाम से कविता करती इसलिए एक नाम यह भी मिला। कलावंती और कीर्तनिन वह पहले से थी। कालांतर में लवलीज, नागर रमणी व उत्सव प्रिया नाम भी मिले।
अनुग्रह के महाभाव और अनुराग को 'पुष्टि मार्ग' मानते हुए बात लाड़-लाड़ली के प्रेम की हो या होली के अतिरेक आनंद की। दीपावली के सौन्दर्य उल्लास की हो या जलाशय के शंात जल में नौका विहार की। कुल मिलाकर उस काल खंड में राधा-कृष्ण की केलि-क्रीड़ा सहित युगल क्रीड़ा का उन्मत्त भोग और आराधना का
बोलबाला रहा।