जीपी मल्ल को पेड़ पौधों के बेकार तनों या फिर जड़ों में नायाब कलाकृतिया ढूंढ लेने का अजब जुनून है। चलते फिरते उनकी पारखी नजरें पेड़ों के कटे तनों या फिर जड़ों में से ऐसी कलाकृतिया खोज लेती हैं, जिन्हें सुसज्जित कर वे अपने पास सहेज लेते हैं। अब तक वह पचास से अधिक ड्रिफ्ट वुड के कलेक्शन जुटा चुके हैं। इनमें से कई कलाकृतियाँ दोस्तों को भी बाट चुके हैं। बावजूद उसके उनका ड्राइंग रूम ऐसी कलाकृतियों से भरा पड़ा है। वहां और जगह नहीं है, उन्हें कहा रखें यह चिंता बढ़ती जा रही है। खास बात यह है कि इनमें कहीं भी ऊपर से तनिक भी कारीगरी नहीं है फिर भी ये जीवंत लगते हैं और हर कलाकृति कुछ न कुछ कहती हैं।
महानगर के मोहद्दीपुर मोहल्ले में रहने वाले जीपी मल्ल ने पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय से वर्ष-64 में प्लाट प्रोटेक्शन में बीएससी एजी आनर्स की परीक्षा पास की और इसके तत्काल बाद उनकी नौकरी चाय बागान में बतौर असिस्टेंट मैनेजर लग गई। अपनी मेहनत व लगन से वे कुछ ही दिनों में मैनेजर हो गए। एक बार किसी काम के सिलसिले में चंडीगढ़ जाना हुआ तो वहा उन्होंने एक एक पार्क में पेड़ पौधों की नेचुरल कलाकृतियों का कलेक्शन देखा। इनसे वह इतने प्रभावित हुए कि खुद भी ऐसे कलेक्शन जुटाने का शौक पाल लिया। असम में नौकरी के दौरान वर्ष-1967 में एक बार वह जंगल से गुजर रहे थे तभी एक तने पर उनकी नजर ठहर गई। गाड़ी रोक कर वह उतरे और पेड़ काट रहे मजदूरों से वह तना ले लिया। तने की शेप ऐसी थी कि हू-ब-हू घोड़े जैसा दिखता था। नीचे फाउंडेशन लगावाया और सहेज कर अपने ड्राइंग रूम में रख लिया। सन्-70 में असम के कार्बी आनलाग के जंगलों में उन्हें रबर प्लाट के एक पेड़ के मोटे तने पर लिपटी लताएं भा गई। पेड़ गिरा हुआ था और मजदूर उसे काट रेह थे। मल्ल ने मजदूरों से तने का वह हिस्सा जिस पर लताएं लिपटी थीं कटवा कर ले लिया। बताते हैं कि लताओं के बीच से बड़ी सावधानी से तना निकलवाया जिसके बाद यह कलाकृति मशहूर चित्रकार पिकासो के चित्र की तरह दिखने लगी। इसका भी फाउंडेशन बनवा कर उन्होंने ड्राइंग रूम में सजा लिया।
बताते हैं कि साथ काम करने वाले उनके अंग्रेज साथी इस कलाकृति की प्रशसा करते नहीं अघाते थे। इसे तैयार करने में दो हफ्ते का समय लगा था। इसी प्रकार वर्ष-73 में वह प। बंगाल में जलपाईगुड़ी के जंगलों से सिरिस के पेड़ से ऐसी जड़ लाए जो अमेरिका के राष्ट्रीय पक्षी बॉल्ड ईगल की शेप की है। इसे दीमक ने ऐसा चाटा था कि पक्षी के खुरदुरे पंख व बिना बाल वाले सिर में ठोड़ तक उभर आए थे। इस पर मिट्टी की पर्त जमी थी। उसे साफ कराने में काफी वक्त लगा। इसी प्रकार उन्होंने चाय की डाली का कुत्ता, आठ टाग वाली मकड़ी [टैरंडुला], बाघ, कछुआ, भैंसे का सिर व सींग, अलग-अलग जानवरों की सींग असम के डुआर्स, कार्बी आनलाग तथा दार्जिलिंग व सिलीगुड़ी से जुटाई। घर में मेज भी चाय के तने वाले हैं। वर्ष-83 में नौकरी छोड़ कर गोरखपुर घर आ गए। तब भी उनका यह शौक जारी रहा और ऐसी कलाकृतिया जुटाते रहे। पत्नी संध्या मल्ल भी इस शौक में उनका भरपूर साथ देती रहीं। अंतिम कलाकृति गोरखपुर के बहरामपुर के पास एक अमरूद के तने से वर्ष-1988 में हासिल की जो कंगारू की शेप में है। 68 वर्षीय मल्ल ने बताया कि वे शौकिया तौर पर ही ऐसा करते थे। कब यह जुनून बन गया पता नहीं चला। ड्रिफ्ट वुड की करीब 50 से अधिक कलाकृतिया उन्होंने सहेजीं। जिनमें से कई उन्होंने लोगों को बाट दीं, क्योंकि उन्हें कहा रखें यह चिंता बढ़ती जा रही थी। ड्रिफ्ट वुड लकड़ी की ऐसी कलाकृतियों को कहते हैं जो प्राकृतिक रूप से पेड़ पौधों में खुद उभर आती हैं।
मिथिलेश द्विवेदी जी से साभार