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रविवार, 2 फ़रवरी 2014

राजस्थान स्कूल आफ आर्ट की राष्ट्रीय कला कार्यशाला शुरू


कृतिकार और दर्शक को मैं से हम होना होगा -सालोदिया
मूमल नेटवर्क, जयपुर। कलाकार और उसकी कृति का दर्शक 'मैं' से निकल कर 'हम' हो जाए और फिर हम मिलकर अपने अनुभव साझा करें तब ही कलाकृतियों का सृजन, प्रदर्शन व दर्शन सार्थक हो सकता होगा। यह लब्बोलुआब उस उद्बोधन का है जो आज प्रदेश के सबसे पुराने कला शिक्षा संस्थान राजस्थान स्कूल आफ आर्ट द्वारा आयोजित तीसरी राष्ट्रीय कला कार्यशाला के उद्घाटन अवसर पर भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी व जवाहर कला केन्द्र के महानिदेशक उमराव सालोदिया ने व्यक्त किए।
राष्ट्रीय कला कार्यशाला के मुख्य अतिथि के रूप में उमराव सालोदिया ने कहा कि किसी कलाकृति के पीछे की भावना सिर्फ  एक कलाकार ही बेहतर व्यक्त सकता है, लेकिन आम दर्शक भी उससे जुड़कर उसे देख और समझ सके, ऐसा तभी सम्भव है जब वह 'मैं' से निकल कर 'हम' हो जाए और फिर हम आपस में अपने-अपने अनुभव साझा करें व कलाकृतियों का सृजन व प्रदर्शन सार्थक करें।
कॉजेल परिसर में चल रही राष्ट्रीय कला कार्यशाला का आयोजन 6 फरवरी तक होगा। इसमें देशभर के विभिन्न महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों की ललित कला संकाय के चित्रकला एवं व्यावहारिक कला विभाग में अध्ययनरत कुल 50 विद्यार्थी भाग ले रहे हैं। कार्यशाला का संचालन वरिष्ठ कलाकार व कॉलेज के एप्लाइड आर्ट विभाग के प्रमुख सुनीत घिल्डियाल द्वारा किया जा रहा है।
घिल्डियाल ने 'मूमल' को बताया कि इस कार्यशाला का मूल उद्देश्य देश भर से आये विभिन्न ललित कला महाविद्यालयों एवं राजस्थान के विद्यार्थियों के मध्य वैचारिक तथा कला एवं संस्कृति का आदान - प्रदान करना भी है। कार्यशाला में विद्यार्थी विभिन्न विधाओं में कार्य करेंगे। इस कार्यशाला में बड़़ोदा, दिल्ली, लखनऊ, बनारस,  चंडीगढ़ जैसे 11 प्रतिष्ठित महाविद्यालयों से विद्यार्थी भाग ले रहे हैं।
इस कार्यशाला के लिए राजस्थान स्कूल ऑफ़ आर्ट, जयपुर के विद्यार्थियों ने महाविद्यालय परिसर के मध्य में एक विशाल हैंगिंग इंस्टालेशन (संस्थापन) किया है जो बहुत ही सुन्दर व दर्शनीय है , जिसका निर्देशन जयन्तश्री द्वारा किया गया है।
इससे पूर्व राजस्थान स्कूल ऑफ़ आर्ट की प्राचार्या डॉ. वंदना चक्रवर्ती ने मुख्य अतिथि उमराव सालोदिया का स्वागत कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया। तत्पश्चात कला इतिहास विभाग क प्रमुख हरिशंकर ने कार्यक्रम का विवरण दिया।
अंत में कार्यशाल कन्वीनर सुनीत घिल्डियाल ने सभी उपस्थित जनों का आभार व्यक्त करते हुए मुख्य अतिथि के संबोधन से सहमति व्यक्त की और कहा कि हमेशा संवाद ही नए आयामों को जन्म देता है। उन्होंने बताया कि यह कार्यशाला बहुत यादगार होगी, क्योंकि इस ऐतिहासिक इमारत में इस कला महाविद्यालय की सम्भवत: यह अंतिम कार्यशाला है। इसके बाद कॉलेज शिक्षा संकुल स्थित नए भवन में स्थानान्तरित हो जाएगा।

 

सोमवार, 26 नवंबर 2012

Bani-Thani ऐसे बनी 'बणी-ठणी'

राजा के दरबार में अन्य गुणी कलाकारों में एक चित्रकार भी थे। नाम था निहाल चंद। वे विभिन्न अवसरों पर  किसी न किसी रूप में राजा के साथ इस दासी को चित्रित करते रहते थे। कहते हैं एक बार राजा ने दासी को रानियों जैसे वस्त्र और अलंकरण धारण करा के सजाया और स्वयं एकांत में उसका एक चित्र बनाया। राजा ने इसे नाम दिया 'बणी-ठणी'। वह चित्र कैसा बना, यह कभी किसी को पता नहीं चला।  जब राजा ने अपनी यह कृति दरबार के चित्रकार निहाल चंद को दिखाई तो राज चित्रकार ने उसमें कुछ संशोधन बताए। बाद में राजा ने वह चित्र अपने चित्रकार से भी बनवाया और वही चित्र सार्वजनिक किया गया।
आज हम जो 'बणी-ठणी' देखते हैं वह किशनगढ़ के राज चित्रकार निहाल चंद की ही कृति है, जो महाराज ने अपने समक्ष बनवाई और उसमें कई सुधार कराए और स्वयं भी किए। राजा सावंत सिंह की तरह चितेरे निहाल चंद को भी अपने चित्रों का विषय बनाने के लिए राजा की प्रिय दासी सर्वोतम व आदर्श माडल लगती थी। निहाल चंद की 'बणी-ठणी' बहुत लोकप्रिय हुई, लेकिन राजा सावंत सिंह की मूल 'बणी-ठणी' कृति को फिर कोई नहीं देख पाया।
कहते हैं राजा ने अपने अंतिम समय तक उस कृति को अपने साथ रखा और अंत से पूर्व उसे नष्ट कर दिया। आज हम राजस्थानी सौन्दर्य और शैली का प्रतीक बनी 'बणी-ठणी' का जो छविचित्र देखते हैं, वह सोलह आने यर्थाथ है। यह अभिज्ञान सही व सत्य है। राजा के जीवन की तरह निम्बार्क के द्वैताद्वैत और बल्लभ के पुष्ट अद्वैत का संगम 'बणी-ठणीÓ में भी हो गया। इस छविचित्र के बाद दासी का यही नाम सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ। जीवन की संध्या बेला में 'बणी-ठणी' राजा के साथ वृंदावन में जाकर रहने लगी और वहीं उन दोनों का देहांत हुआ।

Bani Thani बनी-ठंनी की देहभाषा

देहभाषा और पांच प्रमुख आकर्षण
मेरी नजर में 'बणी-ठणी' के रूप सौन्दर्य के कम से पांच बिंदु ऐसे हैं जो किसी शुष्क मन को भी एक हद तक भिगों देने की क्षमता रखते हैं। यह पांच बिंदु हैं, 'बणी-ठणी' की आंख, नाक, अधर, ठोढी और घने लहराते केश। कुल मिलाकर यही उसकी देहभाषा भी है। काजल युक्त उसके नयन, जूही की कली सी सुति हुई नाक, चकोर की चोंच से कुछ बाहर की ओर उभरे दहकते अधखुले अधर व नुकीली चिबुक। कोमल काया को कसती चोली और लपेटती ओढऩी और दमकते अलंकारों से किसी भव्य महल या मंदिर का सा आभास होता है। हालांकि पूरी चित्र रचना हल्के सफेद, गुलाबी और सलेटी रंगों से आच्छादित है, लेकिन उसी में देहभाषा के संकेत भी हैं।
ऐसे देखें 
देखिए जब रेखाएं कली की तरह मुंदती लगे तो वह तन्वंगी है। जब रेखाएं फैलती लगे तो वही मोटी अर्थात कामिनी और हस्तिनी है। जहां वह लहराती लगे वहां वह छरहरी है और घूमती सी लगे तो सुडोल देह पुष्ट होती है। इनमेंं डूबने के बाद जब हम इससे उबरते हैं तो यही उद्धाटित होता है कि 'बणी-ठणीÓ की देह के अनुपात अर्थात रेश्यो और समानुपात अर्थात प्रोपोर्शन का साइनाएस्थीसिस भी है। एक ही बॉडी यहां साइज और शेप को निर्धारित कर रही है। अत: यहां समान अनुपात में एक से ज्यादा आकारों और आकृतियों को एक से बिजनेस में इनवाल्व पाते हैं। यह प्रक्रिया एक पैरामीटर और एक जैसी थीम में और ज्यादा सटीक लगती हैं। अगर आप गौर करें तो भुजाएं ही अनुपात को समतुल्य कर रही हैं। इन आयामों के बीच हम देह की मुद्राओं और भंगिमाओं को एक भाव में मिला पाते हैं। मुद्राएं अर्थात पोस्चर्श हड्डियों की संरचना और मांसपेशियों से तय होती है। यही तो आकृति बनाती हैं। अनुसंग में भंगिमाएं याने जेश्चर्स व्यंजक ध्वनियों जैसी हैं। ये वक्रोक्ति जैसी हैं।
यहां मामला कुछ जटिल हो रहा है। इसे आसान बनाने के लिए चित्रकार र.कु. मेघ द्वारा इस संदर्भ में बनाए कुछ रेखाचित्रों को देखते हैं यह उन्होंने खासकर अलग-अलग शैलियों में मुखाकृतियों की भंगिमाएं और डिकांस्ट्रकशंन में खुलती भंगिमाएं और उनका अन्य अंगों से समानुपात अर्थात प्रोपोशंस स्पष्ट करने के लिए चित्रित किए हैं।
हम समानुपातिक ढंग से किशनगढ़ कलम की जयपुर कलम, मांडू-मालवा कलम तथा उदयपुर कलम से तुलना करके उनके रहस्यों को खुलते-उघड़ते देख सकते हैं। यहां एकचश्म मुख वाली एक ही मुद्रा की माप-जोख की गई है। जबकि इसी से मुद्रा के बजाय भंगिमा की बारीकी, विविधता, नवीनता, शैली और टेक्नीक का खुलासा हो रहा है। इनमेेें कपोल और चिबुक की हड्डियों तथा नेत्रों के अस्थिकोटर भंगिमाओं की बारीक विलक्षणता को हाइ-लाइट किया गया है। (देखें रेखा चित्र-1)
रेखा चित्र-1
चित्रकार मेघ की बात सही माने तो किरण के अंतराल से ही सौन्दर्य लुक-छिप कर आता-जाता लगता है। वही रूपराशि और लावण्य ढुलकाता है। एक बहुत छोटा बिंदु या कण या इनसे मिल कर बनी रेखा किसी चित्र की अस्मिता और अभिज्ञान को चिन्हित कर देती है। इसमे देह के भावात्मक रसायन अपनी भूमिका अदा करते हैं। ऐसे में भंगिमा के बेहद महीन जाल बुन जाते हैं। (देखें रेखा चित्र-2)
रेखाचित्र 2 लघु विनिर्मितियों (डिकांस्ट्रकशंन) में खुलती भंगिमाएं  (सभी अंग समानुपात (प्रोपोशंस) में)
अब रेख चित्र 1 व 2 का मिलान करने पर हम समानपात के चक्रव्यूह में प्रवेश करने लगते हैं। इसके बाद भंगिमाएं तथा भावों, व्यक्तित्व तथा प्रवृतियों के मनोरथ, द्वंद्व तथा दुविधा, अंातरिक तथा बाह्य, गुप्त तथा प्रकट आदि की आंख-मिचौनी, भूल-भुलैया तथा अवचेतरन-उद्धाटन को भी जान और समझ लेते हैं। कालातंर में इन भंगिमाओं के अंतराल को जानने पर हम एक दिन अपनी-अपनी अरिर्वचनीय भाषाएं खोज सकते हैं, यही भाषा आगे जाकर हमें कला जगत में औरों से अलग पहचान देती है। लग रहा है यहां विषय परिवर्तन हो गया है, चलिए इस खुले विचरण के बाद फिर से 'बणी-ठणी' की लाइन पर आते हैं।
परचित्र प्रवेश
तो राजस्थान की इस महान कृति को देखने और समझने के लिए शंकराचार्य के 'परकाया प्रवेश' की थ्योरी की तरह हम 'बणी-ठणी' में 'परचित्र प्रवेश' करने की कोशिश करते हैं। ऐसे में हम कुछ सार्थक अनुमान लगाने में सफल हो सकते हैं।
अस्थि संरचना यानी एनॉटमी के आधार पर 'बणी-ठणी' की आंखों के नीचे की हड्डी थोड़ी ऊध्र्य हैं, इससे नाक तथा चिबुक नुकीली हो गई है। ऊपरी जबड़े की संधि में वह अधोमुखी है। जिससे ऊपरी अधर टुक कुछ आगे बढ़ आया है। चित्रकार ने केश राशि को जूड़े में बांधने के बजाय लहराती नागिन सा कुंडलित बनाया है। यह माथे के ऊपर सिर के अर्धविकसित फण से लेकर कपोलों में अधर तक लट बन कर आई है फिर दाएं कंधे पर फैलकर तरंगित और स्पंदित हो रही है। मानो यहां राजा और चित्रकार ने इच्छाधारी नागिन के माइथीम का वैज्ञानिक संकेत दिया हो। परचित्र में' कुछ और भीतर प्रवेश करें तो यह पाते हैं कि नागिन रात को ही पूर्ण यौवना, ललिता और कामिनी होकर शय्याकेलि करती है और ब्रह्मकाल में फिर पूर्वत कुंडलिनी हो जाती है।
इसकी पुष्टि हम इस तथ्य से कर सकते हैं कि किशनगढ़ रियासत के पुष्टिमार्गिय कृष्ण मंदिर में रात के शयन की आठवीं 'सेवकाई' अर्थात रात को अंतिम शय्या-शयन का प्रावधान नहीं था। क्योंकि तब अकेली राधा ही कृष्ण शय्या में केलिमग्न होती थीं। किशनगढ़ में तब केवल बणी-ठणी जी ही उस याम में मंदिर मेंं जा सकती  थीं। एक और पारिस्थिक प्रमाण यह है कि बणी-ठणी जी राजा को कृष्ण तुल्य आराध्य और स्वयं को अष्टछाप मंडल में राधा तुल्य भक्तिन मान बैठी थी। इसी के साथ यह भी कि वे 'रसिक बिहारी' के नाम से कविता और कीर्तन गायन भी करती थीं। 'बणी-ठणी' की हस्ती, मस्ती और परस्ती के ये गूढ़ मनोरहस्य भी एक-एक कर खुलते चले जाते हैं।
(चित्रकार श्री रमेश कुतल मेघ सहित गगानाचंल से साभार)

Bani Thani बणी-ठणी का एक समग्र दर्शन

'बणी-ठणी' के वस्त्राभूषण ठेठ सामंती राजस्थानी हैं। ललाट के ऊपर मांग के आरंभ में गोल स्वर्णिम शिरफूल , उससे निकली मोती लडिय़ां, मोती लडिय़ों को जोड़ता बड़ा सा घंटी नुमा झुमका, खनखनाते मोटे चौड़े से कंगन, कलाई से कुहनी तक चढ़ती सिंदूरी चूडिय़ां, गले के नीचे वक्ष क ऊध्र्व को झुलाता कई लडिय़ों वाला कंठहार, एक बड़ी सी गोल नथनी जिस पर जवाहरात गुंथे हैं।
इसी तरह पहनावे में लाल रंग की चोली, गले से लिपटी सफेद चूनर और उसके ऊपर सलमे-सितारे से टंकी तथा कारों की पत्तों पर गोटो से सधी पिछौरी या पिछवाई नजर आ रही है। 'बणी-ठणी' के अंग-प्रत्यंग गोरे गेहूं के रंग से हैं। हथेली केसर या मेहंदी से अनुरंजित है। आंखों में गहरा काला काजल है। उतनी ही काली लटें है जो कान के नीचे कंधों तक पसरी हैं। घनी भौवें तने धनुष सी और पलकें बड़े कमल की पंखुरी सी है। एकचश्म शैली में चित्रित आंख किसी चंचल मछली सी है। होंठ किसी मीन मुख से रसाकुल और रक्तवर्ण हैं।
'बणी-ठणी' ने अंगूठे और प्रथमा अंगुली की चुटकी से सलमेंदार बंधनी की झीनी पिछौरी थाम रखी है। एक ओर वह जहां घंूघट के पट खोल रही है वहीं पीछे के परिदृश्य से अपने सौन्दर्य को छिपा भी रही है। लिबास की कई तहों में ढका सुनहरी गोट का मुद्रा श्रीचक्र भी मानों सब कुछ कह है। मानों यही वह आद्या शक्तिमयी राधा और त्रिपुरसुंदरी है। कम से कम राजा सावंत सिंह तो यही मानते थे।  यही तो निरूपण का व्यूह है। तभी तो नागरी राधा के दास हो कर रह गए...नागरी दास।
ऐसा लगता है कि 'बणी-ठणी' की स्थली फूलमहल में कहीं है। उसकी वेशभूषा राजसी है। वह आभूषण और रत्नों से सज्जित है। उसकी सघन केशराशि खुली है। पलकों पर तो हैं, लेकिन उसके नीचे नेत्रों में बरौनियां नहीं है। बड़ी-बड़ी घुंघराली जुल्फें और झूलती नथनी, हाथों की अंजनी सी मुद्रा आदि सब मिलकर वातावरण में एक लय सी गुंजित करते हैं।