वरिष्ठ कलाकार विद्यासागर उपाध्याय से एक मुलाकात
कलाकार के कोमल हृदय में संवेदनाओं के साथ ही किसी कोने में एक आग भी होती है। कई बार काफी कोशिशों के बाद भी उसे दबाया या बुझाया जाना संभव नहीं हो पाता। पिछले दिनों वरिष्ठ कलाकार विद्यासागर उपाध्याय से एक मुलाकात के दौरान उनके भीतर कहीं धधक रही आग की तपन 'मूमल' ने भी महसूस की। ...और यह भी जाना कि बाहर से अक्सर शांत दिखने वाले इस दबंग कलाकार को इतना गुुस्सा क्यों आता है?
विद्यासागर कहते हैं, गुस्सा तब आता है, -जब कलाकार अपने वाजिब हक के लिए भी आवाज नहीं उठाता। गुस्सा तब आता है,-जब साठ साल से घिसट-घिसट कर चल रही ललित कला अकादमी की आउटपुट कोई नहीं पूछता। गुस्सा तब आता है, -जब पद का दुरूपयोग कर रही ब्यूरोकेसी का विरोध करने के बजाय कलाकार के भेष में कुछ चाटुकार उसके समर्थन में खड़े हो जातेे हैं। गुस्सा तब आता है, -जब राजस्थान के स्कूल ऑफ आर्ट को बदहाल करते बदलाव होते हैं। गुस्सा तब आता है, -जब कला शिक्षा के नाम पर बिना किसी बुनियादी ढांचे के लोग कॉलेज और युनिवर्सिटी खोल कर बैठ जाते हैं। गुस्सा तब आता है, -जब सरकार कला शिक्षा के नाम पर विद्यार्थियों और शिक्षकों से मजाक करता रहता है। गुस्सा तब आता है, -जब कला विद्यार्थी यह बनी बता पाता कि वह इस क्षेत्र में शिक्षा क्यों पा रहा है। गुस्सा तब आता है, -जब कला के नाम पर कचरा तैयार करने वालों की झूठी सराहना की जाती है। गुस्सा तब आता है, -जब कला की भूमि राजस्थान में आज भी आर्ट मार्केट नहीं दिखता। गुस्सा तब आता है, -जब कलाकार एक टूल की तरह हर जगह इस्तेमाल होने के लिए तैयार मिलता है। ...और गुस्सा तब आता है, -जब कलाकार सब देख कर भी खामोश रहता है, कोई कुछ नहीं बोलता......घड़ों पानी पड़ा हुआ है।
तब आता है गुस्सा जब......
जब राजस्थान ललित कला अकादमी के काम की समीक्षा नहीं होती
अकादमी की स्थापना को साठ साल हो गए हैं, इन साठ सालों में अकादमी ने कलाकारों के लिए या कला जगत केे लिए क्या किया है कोई पूछने वाला नहीं है। साठ साल छोडि़ए पिछले दस साल की आउटपुट क्या रही कोई यह भी नहीं जानना चाहता। कुल मिलाकर अकादमी तुष्टिकरण करनेे का साधन हो कर रह गई है। केन्द में अकादमी के कामकाज की समीक्षा के लिए हक्सर या खोसला कमेटी जैसी कई कमेटियां बनाकर हालात का जायजा तो लिया गया। यहां तो अकादमी बनाकर सरकार उसकी समीक्षा करने की बात भूलकर बैठी है। ललित कला अकादमी में क्या हो रहा है? यह जानने के लिए सरकार को कुछ तो करना ही चाहिए। कलाकारों को यह मांग उठानी चाहिए कि समीक्षा के लिए एक समिति बनाई जाए, लेकिन फिर यही बात कि हमारा कलाकार समाज चुप बैठा रहेगा और कुछ नहीं बोलेगा।
बात चाहे लम्बे अर्से से दफ्तर के बाहर मोबाइल एक्जीबिशन के लिए बॉडी का इंतजार कर रही मंहगी चैसिस की बड़ी बात हो या दफ्तर के भीतर कलाकारों की सूचि उपलब्ध कराने की मामूली सी बात, अकादमी में सभी काम कछुआ चाल से हो रहे हैं और किसी पर इसकी कोई जवावदेही नहीं हैं।
बातों के मकडजाल बुनकर अपनी सीमाएं और मजबूरी जताने के अलावा कोई अध्यक्ष कुछ नहीं कर पाया। कार्यकारिणी के बेअसर सदस्यों की बात करना ही बेमानी है। अकादमी में पिछले पन्द्रह साल में से बारह साल तो अफसरशाही ही इसे चलाती रही। अब पिछले दिनों तक जो प्रमुख सचिव अकादमी पर काबिज रही उसने तो हद ही कर दी।
तब आता है गुस्सा जब......
जब अफसरशाही की मनमानी का कोई विरोध नहीं होता
ललित कला अकादमी पर पिछले कुछ सालों तक इस विभाग के प्रमुख सचिव ने अपनी मनमानी चलाए रखी। अपने पद का खुले आम दुरूपयोग किया। एक निजी होटल के आर्ट कैंपों पर खुलकर सरकारी घन लुटाया। हर आयोजन पर पांच लाख रुपए का अनुदान दिया। इसकी जांच होनी चाहिए। किसी निजी आयोजन पर अनुदान की इतनी बड़ी राशि मंजूर किए जाने के पीछे आखिर कया कारण हो सकते हैं? प्रमुख सचिव स्वयं चित्रकारी करती हो और अपने इर्द-गिर्द मंडराने वाले अन्य कलाकारों और होटल मालिकों को अनुग्रहित कर रही हो तो यह जांच और जरूरी हो जाती है। इससे भी आगे बढ़कर जब राजस्थान ललित कला अकादमी द्वारा इन आयोजनों में आर्थिक और अन्य सभी प्रकार की भागीदारी कराने की बात सामने आती है तो वह और भी गंभीर है।
ललित कला अकादमी से आगे बढ़कर प्रमुख सचिव की मनमानी तब सामने आती है जब ललित कला से कोई सीधा वास्ता नहीं रखने वाली संस्कृत, उर्दु या बृजभाषा अकादमी तक को इस बात के लिए बाध्य किया जाता है कि वे निजी होटल के आर्ट कैंप में भागीदारी करने वाले कलाकारों को मानदेय का भुगतान करें और कला सामग्री भी मुहय्या कराएं। इसके बाद जो होता है वह और भी आहत करने वाला है कि विभाग या अकादमी से कलाकारों के लिए काटे गए मानदेय राशि के चैक कलाकार प्रमुख सचिव अपने पास रख ले और कलाकार को दाता की तरह प्रदान करे। हद तो तब भी हो जाती है जब कोई प्रमुख सचिव विभिन्न आयोजनों के लिए अनुदान, सहायता या प्रयोजन स्वीकृत करते हुए खुद भी कलाकार की तरह भागीदारी करे और मानदेय की राशि प्राप्त करे, ऐसी बेशर्मी भी पहली बार ही देखने को मिली। कलाकार इसे मेहरबानी की तरह पाकर स्वयं को धन्य माने। आप रिकार्ड उठाकर देखें इन प्रमुख सचिव के कार्यकाल में हुए कमोबेश सभी आयोजनों में लाभाविंत कलाकार घुमाफिरा कर वहीं हैं जो उनके इर्द-गिर्द मंडराते देखे जाते रहे हैं। इनमें कई तो माननीय वरिष्ठ भी शामिल रहे हैं। ऐसे में गुस्सा नहीं आएगा तो और क्या होगा?
तब आता है गुस्सा जब......
जब राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट बदहाल दिखता है।
राजा रामसिंह द्वारा स्थापित 'मदरसा-ए-हुनरी' से लेकर महाराजा स्कूल ऑफ आर्ट एंड क्राफ्ट से होते हुए आज के राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट तब आकर इस प्रदेश की सबसे पुरानी कला शिक्षण संस्था की किस हद तक बदहाली हुई है यह किसी से छिपा नहीं है। आप बताइए वर्तमान में वहां कोई नेशनल लेवल का टीचर है? अगर कोई अपने आप को मानता भी है तो उसने अब तक कितने कलाकार या मूर्तिकार तैयार किए हैं?
अब तो हाल ये हो गया है कि सरकार ने इसे उठाकर शिक्षा संकुल के पीछे ऐसी जगह पर डाल दिया है जहां निवर्तमान भवन की तुलना में आधे से भी कम स्थान पर मिला है। पता नहीं यह स्थिति कैसे और क्यों स्वीकार की गई? एक सामान्य से कॉलेज की भी वहां कल्पना नहीं की जा सकती जहां प्रदेश के सबसे पुराने और महत्वपूर्ण कला शिक्षा संस्थान को पहुंचा दिया गया। इससे पहले झालाना शिक्षण संस्थानों के क्षेत्र में और उसके बाद जेएलएन मार्ग पर इससे कहीं बड़ी जगह दी जा रही थी तब उसे स्वीकार नहीं किया गया। ऐसा क्यों होता है?
पुरानी इमारत अपने आप में एक विरासत है। अब यह किन हाथों में जाएगी यह एक अलग सवाल है। यहां तो अब नगर निगम की चौकी खुल जाए या पुलिस वाले इसकी गति गवर्नमेन्ट होस्टल सा कर दे तो कोई ताज्जुब नहीं होगा। बाज्जूब तो तब भी नहीं होगा जब इसके बाद भी हमारा कलाकार समाज चुप बैठा रहेगा और कुछ नहीं बोलेगा। उस पर घड़ों पानी पड़ा हुआ है।
तब आता है गुस्सा जब......
जब बिना बुनियादी ढांचे के लोग कॉलेज और युनिवर्सिटी खोल कर बैठ जाते हैं।
वर्तमान में राजस्थान में और राजधानी जयपुर तक में 90 प्रतिशत कला शिक्षण संस्थान ऐसे हैं जो फाइन आर्ट में शिक्षण देने की क्षमता और दक्षता नहीं रखते। इन संस्थाओं के पास बुनियादी ढ़ांचा तक नहीं है। व्यवस्थित मैनेजमेंट और प्रशिक्षित टीचिंग स्टाफ के बिना कॉलेज और युनिवर्सिटी खोले बैठे हैं। इन संस्थाओं में कोई गाइड लाईन तक नहीं है। ऐसी संस्थाओं में यदि बच्चा एडमीशन लेता है तो वो उसके भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं है तो और क्या है?
ऐसे-ऐसे कला शिक्षण संस्थान हैं जो कॉलेज कला शिक्षा में रहे तो वहां एक दर्जन बच्चों की स्टेंन्थ थी अब वो विश्वविद्यालय स्तर का हो गया है वहां पांच विद्यार्थी रह गए हैं। अधिकांश संस्थाओं में पारंगत शिक्षक नहीं हैं। यदि कहीं पारंगत शिक्षक हैं भी तो वो बच्चों के शिक्षण के साथ ईमानदारी नहीं बरतता। यह शिक्षण संस्थान बड़े-बड़े दावे करके केवल विद्यार्थियों को भ्रमित करने का काम कर रहे हैं। इन इंस्टीट्यूट के शिक्षक कला जगत की गतिविधियों से अपडेट नहीं रहते और ना ही वो अच्छे आर्टिस्ट हैं। आज के दौर में आर्टिस्ट की स्थिति, आर्ट मैनेजमेंट, आर्ट प्रकिक्टकल, थ्यौरी, एग्जीबिशन और तो और बैनाले ओर त्रिनाले तक के बारे में वो अपने विद्यार्थी को नहीं बता सकते। उनके आर्ट में अपनी आवाज ही नहीं है। लगभग 75 प्रतिशत शिक्षकों ने अपनी स्टूडेंट लाइफ में और बाद में कभी कला शिक्षण के अच्छे इंस्टीट्यूट नहीें देखे। ऐसे टीचर्स वाले इंस्टिट्यूट बच्चे के भीतर पल रहे अच्छा आर्टिस्ट बनने के जज्बे को कैसे जिन्दा रख सकते हैं।
तब आता है गुस्सा जब......
जब कला विद्यार्थी यह नहीं जानता कि वह इस क्षेत्र में शिक्षा क्यों पा रहा है?
फाइन आर्ट विभाग में एडमीशन करने अधिकांश विद्यार्थी यह नहीं जानते कि उन्होंने कला में एडमीशन क्यों लिया? अपना लक्ष्य उनके दिमाग में स्पष्ट ही नहीं है। कोई कहता है, अच्छा आर्टिस्ट बनने के लिए वह इस क्षेत्र में आया, लेकिन कला के प्रति भूख और जिज्ञासा उनमें नहीं होती। तमाम विद्यार्थियों में मात्र कुछ ही अच्छे आर्टिस्ट के रूप में निकल कर सामने आ पाते हैं।
जो कला शिक्षक बनने के लिए एडमीशन लेते हैं, उनमें आर्ट टीचर बनने का मादा ही नहीं है। पिछले 25 वर्षों में राजस्थान में 25 आर्ट टीचर्स भी नियुक्त नहीं हो पाए हैं। फिर इस सोच के साथ आर्ट में एडमीशन लेना कहां कि समझदारी है? आज का कला विद्यार्थी यह नहीं बता सकता कि वेनिस बैनाले क्या है या कोच्चि बैनाले का क्या हाल हुआ या जो कल तक त्रिनाले हुआ करता था वो क्यों नहीं हो रहा? कुछ भी जानने की इच्छा नहीं है, बस एडमीशन लेना है, डिग्री पानी है, इसलिए एडमीशन लिया है।
तब आता है गुस्सा जब......
जब एक ही विषय में दो पैरलल डिग्रियां जारी होती हैं
दुनिया में कोई भी ऐसी यूनिवर्सिटी नहीं है जो एक ही विषय में दो पैरलल डिग्रियां देती हों। पर दुर्भाग्य कि राजस्थान यूनिवर्सिटी में फाइन आर्ट में एक साथ पैरलल दो-दो डिग्रियां दी जाती हैं। ड्राइंग और पेंटिंग में एम.ए तथा पेंटिंग में एमवीए, म्यूजिक में एम.ए तथा म्यूजिक में एमम्यूज। दो डिग्रियां एक ही डिपार्टमेंट दे रहा है। वही फैकल्टी, वही टीचर दोनों को पढ़ा रहें हैं। ऐसे में उनसे यह कोई नहीं पूछता कि दोनों में से बड़ी डिग्री कौनसी है और यदि दोनों बराबर हैं तो दोनो को एक क्यों नहीं कर लेते। यदि कोई एम.ए ड्राइंग व पेंटिंग की वकालत करता है तो एमवीए को खत्म क्यों नहीं कर देते। बच्चों को दिशाभ्रमित क्यों करते हैं।
तब आता है गुस्सा जब......
जब कला के नाम पर कचरा तैयार करने वालों की झूठी सराहना की जाती है।
कार्यशालाओं में कला के नाम पर अधिकतर कचरा तैयार किया जाता है। अच्ठछी कलाकृतियों की संख्या बहुत ही कम होती है। जो आर्ट सेन्टर्स पर प्रदर्शनियां लगाई जाती हैं, वहां कला के नाम पर अपरिपक्य और कॉपीवर्क प्रदर्शित किया जाता है। उन्हें लोगों सराहना मिलती है। अखबारों में वाह-वाही मिलती है। और ऐसे में उस कलाकार का विकास यदि होना भी होता है तो वहीं रुक जाता है। अधिकतर प्रदर्शनियां तो अपने बायो-डाटा में प्रदर्शनी की संख्या अधिक दिखाने के लिए ही लगाई जाती हैं।
तब आता है गुस्सा जब......
जब कला की भूमि राजस्थान में आज भी आर्ट मार्केट नहीं दिखता।
प्रदेश की जिस भूमि पर टैलेंट पनपता है, वहां आज के दौर में भी आर्ट मार्केट नहीं है। लोगों में आर्ट को समझने और इन्वेस्टमेंट के रूप में खरीदने की न मानसिक क्षमता है और न ही आर्थिक क्षमता। यहां आर्ट मार्केट को पनपाने वाले ना तो बायर्स हैं और ना ही आर्ट कलेक्टर या एपरीसिएटर्स। कंटेपररी इंटिरियर करने वाला तो कोई यहां है ही नहीं। आर्ट मार्केट के लिए इंटिरियर्स का अहम रोल होता है। परन्तु अफसोस कि बड़ी-बड़ी कोठियों के इंटिरियर्स पर केवल फर्नीचर और फर्निशिंग पर ही इंटिरियर के रूप में ध्यान दिया जाता है। राजस्थान के जितने अमीर लोग हैं वो यदि एक वर्ष में आर्ट की खरीददारी पर 5 लाख रुपए भी लगाएं तो राजस्थान का आर्ट मार्केट दुनिया का सबसे बड़ा आर्ट मार्केट बन जाए। खरीददारी की क्षमता वाले लोग यदि अच्छे आर्ट को समझ कर उसे इंवेस्टमेंट के तौर पर पैसा लगाएं तो राजस्थान के आर्ट मार्केट को पनपने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
तब आता है गुस्सा जब......
जब कलाकार एक टूल की तरह हर जगह इस्तेमाल होने के लिए तैयार मिलता है।
अफसरशाही हो या फिर कोई एकेडमिक आयोजन, कलाकार को एक टूल की तरहा इस्तेमाल किया जाता है। और कलाकार भी न्यौता मिलते ही भागीदारी निभाने के लिए तैयार मिलता है। वहां उसे चाहे इंसेटिव दिया जाए या नहीं। अपनी तुष्टि और वाहवाही के लिए अफसरशाही द्वारा आयोजन व प्रदर्शनियां की जाती हैं, फिर चाहे उसमें कोई पेंटिंग बिके या नहीं। सरकार स्वयं भी तो अपने विभिन्न विभागों के लिए पेंटिंग्स की खरीद कर सकती है। क्या आर्टिस्ट को ऐसे आयोजनों का विरोध नहीं करना चाहिए? क्या ऐसे आयोजनों के लिए मना नहीं कर देना चाहिए?
गुस्सा तब सबसे ज्यादा आता है जब......
जब कलाकार यह सब देख कर भी खामोश रहता है, कोई कुछ नहीं बोलता......
जब कलाकार अपने वाजिब हक के लिए भी आवाज नहीं उठाता
लगता है घड़ों पानी पड़ा हुआ है
प्रस्तुति : राहुल सेन
कलाकार के कोमल हृदय में संवेदनाओं के साथ ही किसी कोने में एक आग भी होती है। कई बार काफी कोशिशों के बाद भी उसे दबाया या बुझाया जाना संभव नहीं हो पाता। पिछले दिनों वरिष्ठ कलाकार विद्यासागर उपाध्याय से एक मुलाकात के दौरान उनके भीतर कहीं धधक रही आग की तपन 'मूमल' ने भी महसूस की। ...और यह भी जाना कि बाहर से अक्सर शांत दिखने वाले इस दबंग कलाकार को इतना गुुस्सा क्यों आता है?
विद्यासागर कहते हैं, गुस्सा तब आता है, -जब कलाकार अपने वाजिब हक के लिए भी आवाज नहीं उठाता। गुस्सा तब आता है,-जब साठ साल से घिसट-घिसट कर चल रही ललित कला अकादमी की आउटपुट कोई नहीं पूछता। गुस्सा तब आता है, -जब पद का दुरूपयोग कर रही ब्यूरोकेसी का विरोध करने के बजाय कलाकार के भेष में कुछ चाटुकार उसके समर्थन में खड़े हो जातेे हैं। गुस्सा तब आता है, -जब राजस्थान के स्कूल ऑफ आर्ट को बदहाल करते बदलाव होते हैं। गुस्सा तब आता है, -जब कला शिक्षा के नाम पर बिना किसी बुनियादी ढांचे के लोग कॉलेज और युनिवर्सिटी खोल कर बैठ जाते हैं। गुस्सा तब आता है, -जब सरकार कला शिक्षा के नाम पर विद्यार्थियों और शिक्षकों से मजाक करता रहता है। गुस्सा तब आता है, -जब कला विद्यार्थी यह बनी बता पाता कि वह इस क्षेत्र में शिक्षा क्यों पा रहा है। गुस्सा तब आता है, -जब कला के नाम पर कचरा तैयार करने वालों की झूठी सराहना की जाती है। गुस्सा तब आता है, -जब कला की भूमि राजस्थान में आज भी आर्ट मार्केट नहीं दिखता। गुस्सा तब आता है, -जब कलाकार एक टूल की तरह हर जगह इस्तेमाल होने के लिए तैयार मिलता है। ...और गुस्सा तब आता है, -जब कलाकार सब देख कर भी खामोश रहता है, कोई कुछ नहीं बोलता......घड़ों पानी पड़ा हुआ है।
तब आता है गुस्सा जब......
जब राजस्थान ललित कला अकादमी के काम की समीक्षा नहीं होती
अकादमी की स्थापना को साठ साल हो गए हैं, इन साठ सालों में अकादमी ने कलाकारों के लिए या कला जगत केे लिए क्या किया है कोई पूछने वाला नहीं है। साठ साल छोडि़ए पिछले दस साल की आउटपुट क्या रही कोई यह भी नहीं जानना चाहता। कुल मिलाकर अकादमी तुष्टिकरण करनेे का साधन हो कर रह गई है। केन्द में अकादमी के कामकाज की समीक्षा के लिए हक्सर या खोसला कमेटी जैसी कई कमेटियां बनाकर हालात का जायजा तो लिया गया। यहां तो अकादमी बनाकर सरकार उसकी समीक्षा करने की बात भूलकर बैठी है। ललित कला अकादमी में क्या हो रहा है? यह जानने के लिए सरकार को कुछ तो करना ही चाहिए। कलाकारों को यह मांग उठानी चाहिए कि समीक्षा के लिए एक समिति बनाई जाए, लेकिन फिर यही बात कि हमारा कलाकार समाज चुप बैठा रहेगा और कुछ नहीं बोलेगा।
बात चाहे लम्बे अर्से से दफ्तर के बाहर मोबाइल एक्जीबिशन के लिए बॉडी का इंतजार कर रही मंहगी चैसिस की बड़ी बात हो या दफ्तर के भीतर कलाकारों की सूचि उपलब्ध कराने की मामूली सी बात, अकादमी में सभी काम कछुआ चाल से हो रहे हैं और किसी पर इसकी कोई जवावदेही नहीं हैं।
बातों के मकडजाल बुनकर अपनी सीमाएं और मजबूरी जताने के अलावा कोई अध्यक्ष कुछ नहीं कर पाया। कार्यकारिणी के बेअसर सदस्यों की बात करना ही बेमानी है। अकादमी में पिछले पन्द्रह साल में से बारह साल तो अफसरशाही ही इसे चलाती रही। अब पिछले दिनों तक जो प्रमुख सचिव अकादमी पर काबिज रही उसने तो हद ही कर दी।
तब आता है गुस्सा जब......
जब अफसरशाही की मनमानी का कोई विरोध नहीं होता
ललित कला अकादमी पर पिछले कुछ सालों तक इस विभाग के प्रमुख सचिव ने अपनी मनमानी चलाए रखी। अपने पद का खुले आम दुरूपयोग किया। एक निजी होटल के आर्ट कैंपों पर खुलकर सरकारी घन लुटाया। हर आयोजन पर पांच लाख रुपए का अनुदान दिया। इसकी जांच होनी चाहिए। किसी निजी आयोजन पर अनुदान की इतनी बड़ी राशि मंजूर किए जाने के पीछे आखिर कया कारण हो सकते हैं? प्रमुख सचिव स्वयं चित्रकारी करती हो और अपने इर्द-गिर्द मंडराने वाले अन्य कलाकारों और होटल मालिकों को अनुग्रहित कर रही हो तो यह जांच और जरूरी हो जाती है। इससे भी आगे बढ़कर जब राजस्थान ललित कला अकादमी द्वारा इन आयोजनों में आर्थिक और अन्य सभी प्रकार की भागीदारी कराने की बात सामने आती है तो वह और भी गंभीर है।
ललित कला अकादमी से आगे बढ़कर प्रमुख सचिव की मनमानी तब सामने आती है जब ललित कला से कोई सीधा वास्ता नहीं रखने वाली संस्कृत, उर्दु या बृजभाषा अकादमी तक को इस बात के लिए बाध्य किया जाता है कि वे निजी होटल के आर्ट कैंप में भागीदारी करने वाले कलाकारों को मानदेय का भुगतान करें और कला सामग्री भी मुहय्या कराएं। इसके बाद जो होता है वह और भी आहत करने वाला है कि विभाग या अकादमी से कलाकारों के लिए काटे गए मानदेय राशि के चैक कलाकार प्रमुख सचिव अपने पास रख ले और कलाकार को दाता की तरह प्रदान करे। हद तो तब भी हो जाती है जब कोई प्रमुख सचिव विभिन्न आयोजनों के लिए अनुदान, सहायता या प्रयोजन स्वीकृत करते हुए खुद भी कलाकार की तरह भागीदारी करे और मानदेय की राशि प्राप्त करे, ऐसी बेशर्मी भी पहली बार ही देखने को मिली। कलाकार इसे मेहरबानी की तरह पाकर स्वयं को धन्य माने। आप रिकार्ड उठाकर देखें इन प्रमुख सचिव के कार्यकाल में हुए कमोबेश सभी आयोजनों में लाभाविंत कलाकार घुमाफिरा कर वहीं हैं जो उनके इर्द-गिर्द मंडराते देखे जाते रहे हैं। इनमें कई तो माननीय वरिष्ठ भी शामिल रहे हैं। ऐसे में गुस्सा नहीं आएगा तो और क्या होगा?
तब आता है गुस्सा जब......
जब राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट बदहाल दिखता है।
राजा रामसिंह द्वारा स्थापित 'मदरसा-ए-हुनरी' से लेकर महाराजा स्कूल ऑफ आर्ट एंड क्राफ्ट से होते हुए आज के राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट तब आकर इस प्रदेश की सबसे पुरानी कला शिक्षण संस्था की किस हद तक बदहाली हुई है यह किसी से छिपा नहीं है। आप बताइए वर्तमान में वहां कोई नेशनल लेवल का टीचर है? अगर कोई अपने आप को मानता भी है तो उसने अब तक कितने कलाकार या मूर्तिकार तैयार किए हैं?
अब तो हाल ये हो गया है कि सरकार ने इसे उठाकर शिक्षा संकुल के पीछे ऐसी जगह पर डाल दिया है जहां निवर्तमान भवन की तुलना में आधे से भी कम स्थान पर मिला है। पता नहीं यह स्थिति कैसे और क्यों स्वीकार की गई? एक सामान्य से कॉलेज की भी वहां कल्पना नहीं की जा सकती जहां प्रदेश के सबसे पुराने और महत्वपूर्ण कला शिक्षा संस्थान को पहुंचा दिया गया। इससे पहले झालाना शिक्षण संस्थानों के क्षेत्र में और उसके बाद जेएलएन मार्ग पर इससे कहीं बड़ी जगह दी जा रही थी तब उसे स्वीकार नहीं किया गया। ऐसा क्यों होता है?
पुरानी इमारत अपने आप में एक विरासत है। अब यह किन हाथों में जाएगी यह एक अलग सवाल है। यहां तो अब नगर निगम की चौकी खुल जाए या पुलिस वाले इसकी गति गवर्नमेन्ट होस्टल सा कर दे तो कोई ताज्जुब नहीं होगा। बाज्जूब तो तब भी नहीं होगा जब इसके बाद भी हमारा कलाकार समाज चुप बैठा रहेगा और कुछ नहीं बोलेगा। उस पर घड़ों पानी पड़ा हुआ है।
तब आता है गुस्सा जब......
जब बिना बुनियादी ढांचे के लोग कॉलेज और युनिवर्सिटी खोल कर बैठ जाते हैं।
वर्तमान में राजस्थान में और राजधानी जयपुर तक में 90 प्रतिशत कला शिक्षण संस्थान ऐसे हैं जो फाइन आर्ट में शिक्षण देने की क्षमता और दक्षता नहीं रखते। इन संस्थाओं के पास बुनियादी ढ़ांचा तक नहीं है। व्यवस्थित मैनेजमेंट और प्रशिक्षित टीचिंग स्टाफ के बिना कॉलेज और युनिवर्सिटी खोले बैठे हैं। इन संस्थाओं में कोई गाइड लाईन तक नहीं है। ऐसी संस्थाओं में यदि बच्चा एडमीशन लेता है तो वो उसके भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं है तो और क्या है?
ऐसे-ऐसे कला शिक्षण संस्थान हैं जो कॉलेज कला शिक्षा में रहे तो वहां एक दर्जन बच्चों की स्टेंन्थ थी अब वो विश्वविद्यालय स्तर का हो गया है वहां पांच विद्यार्थी रह गए हैं। अधिकांश संस्थाओं में पारंगत शिक्षक नहीं हैं। यदि कहीं पारंगत शिक्षक हैं भी तो वो बच्चों के शिक्षण के साथ ईमानदारी नहीं बरतता। यह शिक्षण संस्थान बड़े-बड़े दावे करके केवल विद्यार्थियों को भ्रमित करने का काम कर रहे हैं। इन इंस्टीट्यूट के शिक्षक कला जगत की गतिविधियों से अपडेट नहीं रहते और ना ही वो अच्छे आर्टिस्ट हैं। आज के दौर में आर्टिस्ट की स्थिति, आर्ट मैनेजमेंट, आर्ट प्रकिक्टकल, थ्यौरी, एग्जीबिशन और तो और बैनाले ओर त्रिनाले तक के बारे में वो अपने विद्यार्थी को नहीं बता सकते। उनके आर्ट में अपनी आवाज ही नहीं है। लगभग 75 प्रतिशत शिक्षकों ने अपनी स्टूडेंट लाइफ में और बाद में कभी कला शिक्षण के अच्छे इंस्टीट्यूट नहीें देखे। ऐसे टीचर्स वाले इंस्टिट्यूट बच्चे के भीतर पल रहे अच्छा आर्टिस्ट बनने के जज्बे को कैसे जिन्दा रख सकते हैं।
तब आता है गुस्सा जब......
जब कला विद्यार्थी यह नहीं जानता कि वह इस क्षेत्र में शिक्षा क्यों पा रहा है?
फाइन आर्ट विभाग में एडमीशन करने अधिकांश विद्यार्थी यह नहीं जानते कि उन्होंने कला में एडमीशन क्यों लिया? अपना लक्ष्य उनके दिमाग में स्पष्ट ही नहीं है। कोई कहता है, अच्छा आर्टिस्ट बनने के लिए वह इस क्षेत्र में आया, लेकिन कला के प्रति भूख और जिज्ञासा उनमें नहीं होती। तमाम विद्यार्थियों में मात्र कुछ ही अच्छे आर्टिस्ट के रूप में निकल कर सामने आ पाते हैं।
जो कला शिक्षक बनने के लिए एडमीशन लेते हैं, उनमें आर्ट टीचर बनने का मादा ही नहीं है। पिछले 25 वर्षों में राजस्थान में 25 आर्ट टीचर्स भी नियुक्त नहीं हो पाए हैं। फिर इस सोच के साथ आर्ट में एडमीशन लेना कहां कि समझदारी है? आज का कला विद्यार्थी यह नहीं बता सकता कि वेनिस बैनाले क्या है या कोच्चि बैनाले का क्या हाल हुआ या जो कल तक त्रिनाले हुआ करता था वो क्यों नहीं हो रहा? कुछ भी जानने की इच्छा नहीं है, बस एडमीशन लेना है, डिग्री पानी है, इसलिए एडमीशन लिया है।
तब आता है गुस्सा जब......
जब एक ही विषय में दो पैरलल डिग्रियां जारी होती हैं
दुनिया में कोई भी ऐसी यूनिवर्सिटी नहीं है जो एक ही विषय में दो पैरलल डिग्रियां देती हों। पर दुर्भाग्य कि राजस्थान यूनिवर्सिटी में फाइन आर्ट में एक साथ पैरलल दो-दो डिग्रियां दी जाती हैं। ड्राइंग और पेंटिंग में एम.ए तथा पेंटिंग में एमवीए, म्यूजिक में एम.ए तथा म्यूजिक में एमम्यूज। दो डिग्रियां एक ही डिपार्टमेंट दे रहा है। वही फैकल्टी, वही टीचर दोनों को पढ़ा रहें हैं। ऐसे में उनसे यह कोई नहीं पूछता कि दोनों में से बड़ी डिग्री कौनसी है और यदि दोनों बराबर हैं तो दोनो को एक क्यों नहीं कर लेते। यदि कोई एम.ए ड्राइंग व पेंटिंग की वकालत करता है तो एमवीए को खत्म क्यों नहीं कर देते। बच्चों को दिशाभ्रमित क्यों करते हैं।
तब आता है गुस्सा जब......
जब कला के नाम पर कचरा तैयार करने वालों की झूठी सराहना की जाती है।
कार्यशालाओं में कला के नाम पर अधिकतर कचरा तैयार किया जाता है। अच्ठछी कलाकृतियों की संख्या बहुत ही कम होती है। जो आर्ट सेन्टर्स पर प्रदर्शनियां लगाई जाती हैं, वहां कला के नाम पर अपरिपक्य और कॉपीवर्क प्रदर्शित किया जाता है। उन्हें लोगों सराहना मिलती है। अखबारों में वाह-वाही मिलती है। और ऐसे में उस कलाकार का विकास यदि होना भी होता है तो वहीं रुक जाता है। अधिकतर प्रदर्शनियां तो अपने बायो-डाटा में प्रदर्शनी की संख्या अधिक दिखाने के लिए ही लगाई जाती हैं।
तब आता है गुस्सा जब......
जब कला की भूमि राजस्थान में आज भी आर्ट मार्केट नहीं दिखता।
प्रदेश की जिस भूमि पर टैलेंट पनपता है, वहां आज के दौर में भी आर्ट मार्केट नहीं है। लोगों में आर्ट को समझने और इन्वेस्टमेंट के रूप में खरीदने की न मानसिक क्षमता है और न ही आर्थिक क्षमता। यहां आर्ट मार्केट को पनपाने वाले ना तो बायर्स हैं और ना ही आर्ट कलेक्टर या एपरीसिएटर्स। कंटेपररी इंटिरियर करने वाला तो कोई यहां है ही नहीं। आर्ट मार्केट के लिए इंटिरियर्स का अहम रोल होता है। परन्तु अफसोस कि बड़ी-बड़ी कोठियों के इंटिरियर्स पर केवल फर्नीचर और फर्निशिंग पर ही इंटिरियर के रूप में ध्यान दिया जाता है। राजस्थान के जितने अमीर लोग हैं वो यदि एक वर्ष में आर्ट की खरीददारी पर 5 लाख रुपए भी लगाएं तो राजस्थान का आर्ट मार्केट दुनिया का सबसे बड़ा आर्ट मार्केट बन जाए। खरीददारी की क्षमता वाले लोग यदि अच्छे आर्ट को समझ कर उसे इंवेस्टमेंट के तौर पर पैसा लगाएं तो राजस्थान के आर्ट मार्केट को पनपने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
तब आता है गुस्सा जब......
जब कलाकार एक टूल की तरह हर जगह इस्तेमाल होने के लिए तैयार मिलता है।
अफसरशाही हो या फिर कोई एकेडमिक आयोजन, कलाकार को एक टूल की तरहा इस्तेमाल किया जाता है। और कलाकार भी न्यौता मिलते ही भागीदारी निभाने के लिए तैयार मिलता है। वहां उसे चाहे इंसेटिव दिया जाए या नहीं। अपनी तुष्टि और वाहवाही के लिए अफसरशाही द्वारा आयोजन व प्रदर्शनियां की जाती हैं, फिर चाहे उसमें कोई पेंटिंग बिके या नहीं। सरकार स्वयं भी तो अपने विभिन्न विभागों के लिए पेंटिंग्स की खरीद कर सकती है। क्या आर्टिस्ट को ऐसे आयोजनों का विरोध नहीं करना चाहिए? क्या ऐसे आयोजनों के लिए मना नहीं कर देना चाहिए?
गुस्सा तब सबसे ज्यादा आता है जब......
जब कलाकार यह सब देख कर भी खामोश रहता है, कोई कुछ नहीं बोलता......
जब कलाकार अपने वाजिब हक के लिए भी आवाज नहीं उठाता
लगता है घड़ों पानी पड़ा हुआ है
प्रस्तुति : राहुल सेन
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